ऊन्मुक्त

कुछ स्वछ्न्द विचार और उन्मुक्त चिन्तन

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स्थान: New Delhi, Delhi, India

शुक्रवार

पतंजलि का पतन

जब पतंजलि का नाम पहली बार सुना था और इस संस्था के बारे में थोड़ी जानकारी हासिल की थी काफ़ी अच्छा लगा था कि चलो एक संस्था ऐसी है जो आयुर्वेद को सही ढंग से लोगों के पास ले जा रही है और उसके विकास के बारे में बात कर रही है। लेकिन रामदेव (जी हाँ, कभी ये बाबा रामदेव हुआ करते थे, लेकिन अब सिर्फ़ व्यापारी रामदेव हैं) ने जिस तरह से व्यावसायिक सफलता के नए सोपान चढ़े वैसे वैसे उनकी नैतिकता का पतन होता गया। देश, समाज और धर्म की बात कर अपनी धन और ताक़त की क्षुधा को शांत करने लगे। 
कोरोना जैसी आपदा के समय में भी इन्होंने अपना और पतंजलि के हित के बारे में ही ज़्यादा सोचा। हमारे देश के बहुत सारे लोगों को आयुर्वेद और योग  में अटूट आस्था है और इन लोगों ने आयुर्वेद में अपनी आस्था के कारण पतंजलि और रामदेव में भी अपनी आस्था निवेश की और इनको सम्मान और व्यवसायिक सफलता दिलायी।जिस तरह से रामदेव ने कोरोना का ईलाज के खोज का दावा किया था उसके पीछे जनता की सेवा का नहीं बल्कि पैसे कमाने की भूख ज़्यादा थी।
अभी कोई भी उपाय, जड़ी बूटी, दवाई जो कोरोना के ईलाज में थोड़ी से भी मददगार साबित होती है तो लोग उसके पीछे टूट पड़ेंगे। अधिकतर गरीब लोग, जो की अशिक्षा के वजह से वैसे ही भ्रामक विज्ञापनों का शिकार होते हैं, अपने पैसे उस पे खर्च करेंगे जिस से उनको कोई फ़ायदा (दवाई ये बोल के लॉंच की गयी थी की कोरोना को शत  प्रतिशत ख़त्म कर देगी, ये बोल की नहीं की इस से कोरोनो की कुछ लक्षणों में मदद मिल सकती है) नहीं होने वाला है। 
इस तरह के दुष्प्रचार और बिना जाँच परख के किए गए दावों से आवयुर्वेद पे भी सवाल उठाने लगते हैं। किसी दवा की खोज करना एक लम्बी प्रक्रिया है और जबतक सही तरह से दवा की सारे दावों की जाँच नहीं होती है आप बड़े बड़े दावों के साथ सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए उतरतें हैं। जिसके पास पैसा है उसके लिए तो कोई बात नहीं अगर ५०० रुपए एक दवा  पे खर्च हो गए लेकिन एक गरीब इस सोच के साथ दावा ख़रीदेगा की उसका कोरोना ठीक हो जाएगा। और उसे सिर्फ़ धोखा मिलेगा। 

मंगलवार

गरिमा और मर्यादा



राजनीती और राजनीतिज्ञों के नौटंकी का देखकर विवशता और क्रोध आता है. ये हमारी प्रतिनिधि हैं.  इनको हम अपना वोट देकर हम अपने समाज और देश को आगे ले जाने का दायित्व सौंपते हैं. लेकिन ये सिर्फ हमारी ग़लतफ़हमी है. आज की राजनीती ने लोकतंत्र के चुनाव की प्रक्रिया को इस मोड़ पे ला खड़ा कर दिया है की आप सबसे ख़राब लोगों में से सबसे कम ख़राब उम्मीदवार चुनते हैं.
राजनीतिज्ञों की सबसे बड़ी जीत और लोकतंत्र की सबसे बड़ी हार है की आम आदमी राजनीती में जाना नहीं चाहता है. जीत के लिए जिस तरह से अपने आप को निचे गिराना पड़ता है वो सभी के लिए संभव नहीं है.
विगत दो महीनो में मैं चुनाव के दौरान हुए बयान-बाजी और आरोप-प्रत्यारोप को सुन रहा हूँ. सुन के सिर्फ यही लगता है की कैसे इन गरिमा और मर्यादाहीन लोगो से सम्यक आचरण की उम्मीद कर सकतें हैं.  कोई भी व्यक्ति अपने सभ्यता और मर्यादा को ध्यान में रखते हुए इस प्रक्रिया में जीत की उम्मीद नहीं रख सकता.

बुधवार

चुनाव के दिन आये रे भैया

चुनाव के दिन आ गए फिर से. वैसे इतने बड़े देश में कोई ना कोई चुनाव तो होता ही रहता है लेकिन इस चुनाव की बात कुछ और है. लोकसभा चुनाव, चुनाव जो अगले पांच साल के लिए हमारे देश और समाज को दिशा देने वाला चुनाव. वैसे चुनाव जब होगा सो होगा लेकिन इस चुनाव से पहले से ही मैंने तयारी करना चालु  कर दिया था.

सबसे पहले घर से TV हटाया। फ़ोन पे WhatsAPP के ढेर सारे ग्रुप्स  को 'म्यूट' किया. Facebook  पे जाके अपने Friendlist की सफाई की. बहुतों को लात मार  के भगाया, चाहता तो यही था लेकिन ये विकल्प नहीं था इसलिए  Unfriend  कर के ही संतोष करना पड़ा.  ये अधिकतर वो लोग थे जिन्होंने कसम खाई है  की हर दिन ५० पोस्ट और फॉरवर्ड डालना ही डालना है. अधिकतर फॉरवर्ड्स आपको याद दिलातें हैं की अगर आप उनके द्वारा  समर्थित  दल को मत नहीं देते हैं तो दुनिया का प्रलय हो जायेगा

दूसरा बड़ा  काम था, घर से टीवी  को हटाना. टीवी  के हटतें ही जैसे दुनिया बदल गयी. घर शांत, मन शांत और दिमाग शांत.

इसके बाद  का काम था की राजनितिक बहस से बचने के लिए जिस पार्टी के समर्थक से मिलो उसी के सुर में सुर मिलाना. उसे जिस पार्टी को वोट देना है उसी  को देगा, बहस की कोई गुंजाइस ही नहीं है फिर फ़ालतू की मगजमारी  बहस क्यों करना. बेचारे को ये बोल के खुश कर दो की आप भी उसी की पार्टी को वोट दे रहे हो.

अभी तक तो मेरी तरकीब सफल है और मेरा मानसिक संतुलन बना हुआ है. आगे देखतें क्या होता है.

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रविवार

वोट दे, साष्टांग समर्पण न करें


अधिकतर लोग और हमारे नीति निर्माता गैर सरकारी संस्थायों (NGOs) की विदेशी फंडिंग का इसलिए विरोध करतें हैं की वो विदेश फंडिंग पा कर विदेश हित में काम करेंगे.. ध्यान रहे NGOs सिर्फ नीतियों को प्रभावित कर सकतें हैं, नीतियां बना नहीं सकते. लेकिन जो नीति निर्माता है, जो देश चलातें हैं उनकी विदेशी फंडिंग के बारे में बात नहीं होती है. हमारी न्यायपालिका ने जब बीजेपी और कांग्रेस दोनों के विदेशी फंडिंग में अनियमितता पायी और जांच के आदेश दिए तो इन दोनों पार्टियों ने कंधे से कन्धा मिलकर देश हित को ताखे पे रख अपने हित के लिए ऐसा बिल पास किया है  जो ना सिर्फ राजनितिक पार्टियों की विदेशी फंडिंग की अनुमति देता है बल्कि पूर्वप्रभाव (retrospection) से नियमित करता है.मतलब दोनों कोंग्रेस और बीजेपी जिनके फंडिंग में अनियमितता पायी गयी थी अब निर्दोष हो जाएँगी.
राजनितिक प्रक्रिया में वोट देना आवश्यक है इसलिए वोट दे लेकिन साष्टांग समर्पण न करें. देश भक्त बने, राजनितिक पार्टियों के सेवक न बने.
वोट दे कर हम राजनितिक पार्टियों से यह अधिकार खरीदतें है की हम उनके हरेक कदम की समीक्षा कर सकें और उनके निर्णयों पे प्रश्न उठा सकें. राजनितिक दल हमसे वोट ही नहीं हमसे हमारा साष्टांग सम्पूर्ण समर्पण चाहतें है. इसलिए नहीं की वो देश हित में काम करें, बल्कि इसलिए की जब वो अपने हित में काम करे हम सवाल न पूछें.


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शनिवार

हिंदी किताबों - पत्रिकायों की तलाश

यात्रा के दौरान पढने के शौक मुझे बचपन से है. यात्रा करने का साधन बदला, उसकी फ्रीक्वेंसी बदली लेकिन पढने का शौक जस का तस है. हालाँकि एक बदलाव ऐसा हुआ है जो शायद आलस और आरामतलबी के कारण हुआ है इसको मैं बदल सकता था या अभी भी बदल सकता हूँ लेकिन इतना आसन नहीं है. ये बदलाव है किताबों के बदले पढने के लिए Kindle का इस्तेमाल करना. इसके कारण से मेरे पास पढने के लिए हमेशा ढेर सारी किताबें साथ रहती है लेकिन इनमे से लगभग सारी किताबें अंग्रजी भाषा की हैं. हिंदी किताबों की उपलब्धता अभी भी काफी सीमित है. सो बहुत दिनों से हिंदी में किताबें बहुत कम पढ़ी है. अगर साल में २०-३० किताबें  पढ़ पाता हूँ तो उनमे से शायद ५ भी हिंदी की नहीं होती हैं.

इस साल मेरी कोशिश है की मैं ज्यादा से ज्यादा हिंदी में पढूं. और हिंदी के नए लेखकों की कृतियां पढूं. पिछले कुछ दिनों से मैं Amazon पे हिंदी किताबों को खोज रहा हूँ और यह आसान कार्य नहीं है. पिछले एक साल से हिंदी किताबों की उपलब्धता बढ़ी है Flilpkart और Amazon पे लेकिन ये अभी भी नगण्य है.

हिंदी के प्रकाशकों को अभी ऑनलाइन किताब बेचना ठीक से नहीं आया है. मैंने किताबें खोजने के क्रम में पाया की अधिकतर किताबों को सिर्फ ऑनलाइन उपलब्ध करा दिया गया है लेकिन उनके बारे में कोई और जानकारी नहीं है. अगर आप को किताबों और लेखकों के बारे में पहले से पता है तो आप खोज ले अन्यथा अधिकतर किताबों के बारे में कोई वर्णन नहीं है. आपको लेखक का कोई परिचय नहीं मिलेगा (खासकर नए लेखकों के बारे में) और ना ही सही ढंग से किताबों का वर्गीकरण किया हुआ है.

अंग्रेजी किताबों के बारे में अनगिनत ब्लॉग और समीक्षा लेख वाले वेबसाइट पे जानकारी है. आपको अगर पता है की आप किस तरह की किताब पढ़ने की इच्छा है तो तुरंत ही आप के पास उस प्रकार की किताबों की लिस्ट मिल जाएगी. यही नहीं विगत वर्षों के सबसे अच्छी किताबों की लिस्ट आज कल सैकड़ों वेबसाइट पे उपलब्ध है. ये सब आपके खोज को आसान कर देतीं है और आपको नयी नयी किताबों के बारे में जानकारी भी देती हैं. हिंदी किताबों के लिए ये अभी तक नहीं हो पाया है.

मैंने सोचा की चलो पिछले पांच वर्षों की सर्व-श्रेष्ठ किताबों को ही पढ़ लिया जाये. लेकिन कहाँ मिलेगी इनकी लिस्ट. या फिर मैं हिंदी की १०० श्रेष्ठ किताबों की लिस्ट बना लूँ और उसी लिस्ट के किताबों को पढ़ा जाये. मैंने ऐसा अंग्रेजी के किताबों के लिए किया था. और लगभग १० ऐसी लिस्ट होंगी जिन्होंने अपने हिसाब से इन पुस्तकों को श्रेणी में रखा है और ये सभी अलग अलग हैं लेकिन लगभग ७० प्रतिशत पुस्तकें इन सब में हैं.

खैर मैंने थोडा हाथ पैर मारकर कुछ किताबों को उठाया है. और कोशिश करूँगा की इस ब्लॉग पे उन सबके बारे में एक-दो लाइन की समीक्षा लिख कर उनके बारे में जानकारी फ़ैलाने की कोशिश करूँगा. हालांकि अभी इस बात कर निर्णय नहीं लिया है की उनके बारे में हिंदी में लिखना वेब-सर्च के लिए बेहतर होगा या अंग्रेजी में. मैंने जब खोजना चालू किया था तो अंग्रेजी में ही खोज रहा था..

किताबों की खोज के क्रम में मैं हिंदी पत्रिकायों को भी पुनः पढ़ने का निश्चय लिया है. लेकिन इनकी स्थिति और भी ख़राब है. गिनी चुनी पत्रिकाएं ही बचीं हैं. बड़े समूह द्वारा प्रकाशित पत्रिकायों में से सिर्फ कादम्बिनी को खोज पाया. एक समय में धर्मयुग, कादम्बिनी, हंस, विचार मीमांसा आदि कितनी पत्रिकाएं थी पर आजकल बहुत ही कम बची हैं.

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पुस्तक मेला और हिंदी प्रेम


जब भी मैं किसी पुस्तक मेले के बारे में सुनता हूँ तो बरबस जाने की इच्छा होने लगती है. बचपन से ही किताबों से दोस्ती है और ये दोस्ती अभी तक कायम है. बहुत सारे बदलाव आएं हैं इस दोस्ती में लेकिन इस दोस्ती के मूल में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. आजकल अधिकतर किताबें हम अपने ebook reader पे पढ़तें हैं, मनपसंद लेखकों और पुस्तकों की जो सूचि थी उसमे थोड़ा परिवर्तन आ गया है. लेकिन किताबों से दोस्ती अभी भी कायम है बल्कि ये और भी प्रगाढ़ हो गयी है.

ये दोस्ती उस समय से चली आ रही है जब किताबों से मिलना एक उत्सव या त्यौहार हुआ करता था. छोटे छोटे गाँव में किताबों से मुलाकात, किसी बड़े बुजुर्ग के उदारता और विचारों के खुलेपन पर निर्भर थी. बच्चों के लिए किताबों का मतलब था वो किताबें जो पाठ्यक्रम का हिस्सा थीं. इसलिए विरले ही लोग थे जो हमें पाठ्यक्रम से बहार की किताबों के पढ़ने के लिए हमें इजाजत देते थे या प्रोत्शाहित करते थे. शहर जाना बहुत कम हुआ करता था इसलिए खुद से किताबें खरीदना संभव नहीं था. फिर भी इन साड़ी परिकूल परिस्थितियों के बावजूद हमने ढेर सारी किताबें पढ़ डाली.

सो इसबार भी मैंने काफी व्यस्तता के बाद भी पुस्तक मेले में जाने के लिए समय निकाल लिया. दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेला अपने आप में एक त्यौहार है. यहाँ जाने का मुख्य उद्देश्य किताबें खरीदना नहीं बल्कि किताबों के प्रति अपने प्रेम का उत्सव मनाना है. वहां पहुँच के मैंने उन सभी प्रकाशकों और विक्रेतायों की दुकानों में एक चक्कर लगाया. हर तरफ अंग्रेजी किताबों का बोलबाला था. क्षेत्रीय भाषायों की तो बात दूर की है हिंदी के प्रकाशक भी बहुत खोजने से मिले. हिंदी के प्रकाशकों 'प्रदर्शनी स्थलों' और अंग्रजी किताबों के 'बुकस्टाल' में काफी अंतर था. दो नितांत अलग संसार. जहाँ अंग्रेजी बुकस्टाल्स में हर तरफ चमक, गहमागहमी और यौवन था वहीँ हिंदी किताबों की दुकानें विवर्ण और शांत थीं.

हिंदी और अंग्रेजी साहित्य का वर्तमान सिर्फ एक नजर में दिखाई दे रहा था. दोनों दुकानों की किताबें बहुत सही सूचक थी इस वर्तमान का. जहाँ अंग्रेजी पुस्तकें रंग बिरंगे चमचमाते जिल्द में लोगों  के हाथों में इतरा रहीं थीं वहीँ हिंदी पुस्तकें पुराने फीके पड़ते साज-सज्जे के साथ चंद स्थूलकाय अधेड़ व्यक्तियों को आकर्षित करने की कोशिश कर रही थीं. बहुत ही कम युवा दिखायी दिए इन दुकानों में.

मैंने २-३ हिंदी प्रकाशकों के दुकानों के अंदर कुछ समय बिताने के बाद ज्ञानपीठ प्रकाशन के स्टाल में घुश गया. अंग्रेजी की लगभग सारी  किताबें मैं कभी भी किसी भी ऑनलाइन स्टोर से मंगा  सकता था लेकिन हिंदी की किताबें बहुत मुश्किल से देखने को मिलती हैं ऑनलाइन या Crossword, Landmark जैसी दुकानों में. कुछ ही  देर में मैंने लगभग १५-२० किताबें उठा ली थी. जब मैं भुगतान करने एक अधेङ  सज्जन जो की क्रेडिट कार्ड से भुगतान लेने वाली मशीन से उलझ रहे थे, के पास पहुंचा तो उन्होंने एक नजर मेरे ऊपर डाली और धीरे से पूछा -

"सब किताबें लेनी है?"
"जी हाँ"
"पेमेंट तो आप कार्ड से करेंगे?"
"जी, मशीन नहीं काम कर रही है क्या?"
"नहीं, नहीं. .. थोड़ी दिक्कत कर रही है लेकिन हो जायेगा."

मैंने भुगतान किया और उन्होंने काफी ध्यान से मेरे किताबों के साथ अपने प्रकाशन की पुस्तकों की सूचि मेरे थैले में डाला. तीन थैले हो गए थे मेरे. उठाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था, ये भी लगा की शायद मैंने कुछ ज्यादा ही किताबें खरीद ली है इतनी तो शायद मैं इस साल पढ़ भी नहीं सकूँगा.  लेकिन जैसे ही मैंने अपने इर्दगिर्द देखा तो हिम्मत नहीं हुयी की मैं किताबों को वापस करूँ. हिंदी प्रेम के एक जोरदार हिलकोरे ने मुझे भावविव्हल  कर दिया था. ऐसा लगा की किताबों को वापस करने का सोच कर मैंने कोई अपराध कर लिया हो.

मैंने थैले उठाये और दुकान से बहार निकल गया.

बुधवार

वापसी

बहुत दिनों बाद फिर से हिंदी में लिखने का मन किया और हमें इस पुराने चिठ्ठे की याद आई. शायद जीमेल के हिंदी लिखने को और आसान बना देने के कारण इस बार ज्यादा आलस्य नहीं हुआ क्योंकि इस से पहले जब भी हिंदी मैं लिखने की इच्छा हुई , एक अदद हिंदी में चिठ्ठा लिखने वाले कंप्युटर प्रोग्राम के आभाव में इच्छा दम तोड़ गई . ये चिठ्ठा भी मैं अपने मेल के द्वारा ही प्रेषित करने वाला हुं, काफी अच्छी सुविधा है मेल बॉक्स में लिखें और blogger के द्वारा दिए गए पते पर भेज दें और आपका चिठ्ठा ऑनलाइन हो गया.

जैसे जैसे मैं हिंदी लिख रहा हुं मुझे एहसास हो रहा है की मातृभाषा में लगभग १० साल बाद लिखना सुखद अनुभव लग रहा है लेकिन अपनी वर्तनी और व्याकरण काफी कमजोर महसूस हो रहें हैं , शायद १० साल की अपेक्षा की कीमत है ये. कोशिश करूँगा की मैं फिर से अपनी हिंदी को वांछित स्तर तक ले जाऊं, आखिरकार मैंने अपनी प्रारंभिक १२ सालों की शिक्षा हिंदी माध्यम से ही प्राप्त की थी.