पतंजलि का पतन
जब पतंजलि का नाम पहली बार सुना था और इस संस्था के बारे में थोड़ी जानकारी हासिल की थी काफ़ी अच्छा लगा था कि चलो एक संस्था ऐसी है जो आयुर्वेद को सही ढंग से लोगों के पास ले जा रही है और उसके विकास के बारे में बात कर रही है। लेकिन रामदेव (जी हाँ, कभी ये बाबा रामदेव हुआ करते थे, लेकिन अब सिर्फ़ व्यापारी रामदेव हैं) ने जिस तरह से व्यावसायिक सफलता के नए सोपान चढ़े वैसे वैसे उनकी नैतिकता का पतन होता गया। देश, समाज और धर्म की बात कर अपनी धन और ताक़त की क्षुधा को शांत करने लगे।
कोरोना जैसी आपदा के समय में भी इन्होंने अपना और पतंजलि के हित के बारे में ही ज़्यादा सोचा। हमारे देश के बहुत सारे लोगों को आयुर्वेद और योग में अटूट आस्था है और इन लोगों ने आयुर्वेद में अपनी आस्था के कारण पतंजलि और रामदेव में भी अपनी आस्था निवेश की और इनको सम्मान और व्यवसायिक सफलता दिलायी।जिस तरह से रामदेव ने कोरोना का ईलाज के खोज का दावा किया था उसके पीछे जनता की सेवा का नहीं बल्कि पैसे कमाने की भूख ज़्यादा थी।
अभी कोई भी उपाय, जड़ी बूटी, दवाई जो कोरोना के ईलाज में थोड़ी से भी मददगार साबित होती है तो लोग उसके पीछे टूट पड़ेंगे। अधिकतर गरीब लोग, जो की अशिक्षा के वजह से वैसे ही भ्रामक विज्ञापनों का शिकार होते हैं, अपने पैसे उस पे खर्च करेंगे जिस से उनको कोई फ़ायदा (दवाई ये बोल के लॉंच की गयी थी की कोरोना को शत प्रतिशत ख़त्म कर देगी, ये बोल की नहीं की इस से कोरोनो की कुछ लक्षणों में मदद मिल सकती है) नहीं होने वाला है।
इस तरह के दुष्प्रचार और बिना जाँच परख के किए गए दावों से आवयुर्वेद पे भी सवाल उठाने लगते हैं। किसी दवा की खोज करना एक लम्बी प्रक्रिया है और जबतक सही तरह से दवा की सारे दावों की जाँच नहीं होती है आप बड़े बड़े दावों के साथ सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए उतरतें हैं। जिसके पास पैसा है उसके लिए तो कोई बात नहीं अगर ५०० रुपए एक दवा पे खर्च हो गए लेकिन एक गरीब इस सोच के साथ दावा ख़रीदेगा की उसका कोरोना ठीक हो जाएगा। और उसे सिर्फ़ धोखा मिलेगा।