ऊन्मुक्त

कुछ स्वछ्न्द विचार और उन्मुक्त चिन्तन

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शनिवार

पुस्तक मेला और हिंदी प्रेम


जब भी मैं किसी पुस्तक मेले के बारे में सुनता हूँ तो बरबस जाने की इच्छा होने लगती है. बचपन से ही किताबों से दोस्ती है और ये दोस्ती अभी तक कायम है. बहुत सारे बदलाव आएं हैं इस दोस्ती में लेकिन इस दोस्ती के मूल में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. आजकल अधिकतर किताबें हम अपने ebook reader पे पढ़तें हैं, मनपसंद लेखकों और पुस्तकों की जो सूचि थी उसमे थोड़ा परिवर्तन आ गया है. लेकिन किताबों से दोस्ती अभी भी कायम है बल्कि ये और भी प्रगाढ़ हो गयी है.

ये दोस्ती उस समय से चली आ रही है जब किताबों से मिलना एक उत्सव या त्यौहार हुआ करता था. छोटे छोटे गाँव में किताबों से मुलाकात, किसी बड़े बुजुर्ग के उदारता और विचारों के खुलेपन पर निर्भर थी. बच्चों के लिए किताबों का मतलब था वो किताबें जो पाठ्यक्रम का हिस्सा थीं. इसलिए विरले ही लोग थे जो हमें पाठ्यक्रम से बहार की किताबों के पढ़ने के लिए हमें इजाजत देते थे या प्रोत्शाहित करते थे. शहर जाना बहुत कम हुआ करता था इसलिए खुद से किताबें खरीदना संभव नहीं था. फिर भी इन साड़ी परिकूल परिस्थितियों के बावजूद हमने ढेर सारी किताबें पढ़ डाली.

सो इसबार भी मैंने काफी व्यस्तता के बाद भी पुस्तक मेले में जाने के लिए समय निकाल लिया. दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेला अपने आप में एक त्यौहार है. यहाँ जाने का मुख्य उद्देश्य किताबें खरीदना नहीं बल्कि किताबों के प्रति अपने प्रेम का उत्सव मनाना है. वहां पहुँच के मैंने उन सभी प्रकाशकों और विक्रेतायों की दुकानों में एक चक्कर लगाया. हर तरफ अंग्रेजी किताबों का बोलबाला था. क्षेत्रीय भाषायों की तो बात दूर की है हिंदी के प्रकाशक भी बहुत खोजने से मिले. हिंदी के प्रकाशकों 'प्रदर्शनी स्थलों' और अंग्रजी किताबों के 'बुकस्टाल' में काफी अंतर था. दो नितांत अलग संसार. जहाँ अंग्रेजी बुकस्टाल्स में हर तरफ चमक, गहमागहमी और यौवन था वहीँ हिंदी किताबों की दुकानें विवर्ण और शांत थीं.

हिंदी और अंग्रेजी साहित्य का वर्तमान सिर्फ एक नजर में दिखाई दे रहा था. दोनों दुकानों की किताबें बहुत सही सूचक थी इस वर्तमान का. जहाँ अंग्रेजी पुस्तकें रंग बिरंगे चमचमाते जिल्द में लोगों  के हाथों में इतरा रहीं थीं वहीँ हिंदी पुस्तकें पुराने फीके पड़ते साज-सज्जे के साथ चंद स्थूलकाय अधेड़ व्यक्तियों को आकर्षित करने की कोशिश कर रही थीं. बहुत ही कम युवा दिखायी दिए इन दुकानों में.

मैंने २-३ हिंदी प्रकाशकों के दुकानों के अंदर कुछ समय बिताने के बाद ज्ञानपीठ प्रकाशन के स्टाल में घुश गया. अंग्रेजी की लगभग सारी  किताबें मैं कभी भी किसी भी ऑनलाइन स्टोर से मंगा  सकता था लेकिन हिंदी की किताबें बहुत मुश्किल से देखने को मिलती हैं ऑनलाइन या Crossword, Landmark जैसी दुकानों में. कुछ ही  देर में मैंने लगभग १५-२० किताबें उठा ली थी. जब मैं भुगतान करने एक अधेङ  सज्जन जो की क्रेडिट कार्ड से भुगतान लेने वाली मशीन से उलझ रहे थे, के पास पहुंचा तो उन्होंने एक नजर मेरे ऊपर डाली और धीरे से पूछा -

"सब किताबें लेनी है?"
"जी हाँ"
"पेमेंट तो आप कार्ड से करेंगे?"
"जी, मशीन नहीं काम कर रही है क्या?"
"नहीं, नहीं. .. थोड़ी दिक्कत कर रही है लेकिन हो जायेगा."

मैंने भुगतान किया और उन्होंने काफी ध्यान से मेरे किताबों के साथ अपने प्रकाशन की पुस्तकों की सूचि मेरे थैले में डाला. तीन थैले हो गए थे मेरे. उठाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था, ये भी लगा की शायद मैंने कुछ ज्यादा ही किताबें खरीद ली है इतनी तो शायद मैं इस साल पढ़ भी नहीं सकूँगा.  लेकिन जैसे ही मैंने अपने इर्दगिर्द देखा तो हिम्मत नहीं हुयी की मैं किताबों को वापस करूँ. हिंदी प्रेम के एक जोरदार हिलकोरे ने मुझे भावविव्हल  कर दिया था. ऐसा लगा की किताबों को वापस करने का सोच कर मैंने कोई अपराध कर लिया हो.

मैंने थैले उठाये और दुकान से बहार निकल गया.